शनिवार, 23 अगस्त 2008

1857 की क्रांति के महान युवा शहीद

युवराज लाल प्रताप सिंह
अरविन्द कुमार सिंह
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सभी जाति -धर्म के लोग जिस तरह से गोलबंद हुए थे उसी ने इस क्रांति को जनक्रांति में बदल दिया था। फिर भी बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके बारे में अभी भी हमारे पास बहुत सीमित सूचनाएँ उपलव्ध हैं। इन्ही में अमर शहीद लाल प्रताप सिंह का नाम भी शामिल है। हालांकि वह एक जानीमानी रियासत से संबंध रखते थे और उन्होने मात्र 26 साल की उम्र में ऐतिहासिक चांदा की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान हंसते-हंसते दे दिया था।
लाल प्रताप सिंह (1831-1858) की वीरगाथा को अभी भी उचित सम्मान मिलना शेष है। लाल प्रताप सिंह आजादी के आंदोलन में ऐतिहासिक भूमिका निभानेवाली प्रतापगढ़ के कालाकाकर राज के जयेष्ट युवराज थे। उस जमाने की सबसे कठिन लड़ाइयों में एक चांदा की लड़ाई में वह अंग्रेजों से बहुत वीरता से टक्कर लेते हुए 19 फरवरी 1858 को शहीद हुए थे। एक लंबे समय तक गुमनामी के अंधेरे में रहे इस महान नायक की याद को स्थायी बनाने के लिए उनके शहादत तिथि यानि 19 फरवरी 2009 को भारतीय डाक विभाग एक विशेष स्मारक डाक टिकट जारी करने जा रहा है। इस प्रयास के लिए निश्चय ही फिलैटली विभाग बधाई का पात्र है। यही प्रयास अन्य बलिदानियों के लिए किया जाना चाहिए।
वास्तव में 1857 के दौरान इलाहाबाद व आसपास के इलाको में भारी दमनराज चलाने के बाद दंभ से भरा जनरल नील जब सुल्तानपुर के रास्ते लखनऊ की ओर जा रहा था तो बेगम हजरत महल ने कालाकांकर नरेश तथा अमेठी के राजा लाल माधव को उसकी सेना को रोकने का संदेश भेजा। नील लखनऊ रेजीडेंसी को मुक्त कराने के इरादे से काफी बड़ी सैन्य तैयारी

साथ जा रहा था।
इस अवसर पर कालाकाकर नरेश ने अपने सबसे प्रिय पुत्र युवराज लालप्रताप सिंह को चांदा की घेराबंदी कर अंग्रेजों से मुकाबला करने का जिम्मा सौंपा। युवराज अपने साथ सैनिको और बड़ी संख्या में अपने समर्थक दिलेर किसानो के साथ अक्तूबर 1857 के आखिर में मोरचे पर पहुंच गए। बागियों ने चांदा तथा अमेठी में अंग्रेजों के खिलाफ जोरदार मोरचा लिया।
चांदा फतह करने के इरादे से अंग्रेज भारी तामझाम और सैन्य तैयारी के साथ निकले थे। पर पर चांदा की लड़ाई उनके लिए वाटरलू जैसी होती दिखी। अंग्रेजों के छक्के छूट गए और उनको बुरी तरह पराजित होना पड़ा। इस पराजय से अंग्रेज काफी घबरा गए। उधर बागियों ने विजय के बाद भी सतर्कता बरकरार रखी और चांदा को अपना मजबूत किला बनाए रखा। अंग्रेजों के खिलाफ जंग में चांदा का मोरचा अवध का ऐतिहासिक मोरचा माना जाता है।
उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक 18 फरवरी 1858 को चांदा की लड़ाई में 20 हजार से अधिक स्वातंत्र्य वीरों ने भाग लिया था। हालांकि इनमें पैदल सिपाही 2500 और सवार 1400 के आसपास ही थे। बाकी जंग में शामिल होने पहुंचे स्थानीय किसान और मजदूर थे। उनके पास उन्नत हथियार या तोपें नहीं थीं, बल्कि लाठी, भाला, बल्लम और परंपरागत हथियार तथा कइयों के पास तलवारे थी। इससे पता चलता है fक क्रांति नायको के पास किस बड़े स्तर का जनसमर्थन था।
लेकिन चांदा की लड़ाई में बागी नेताओं के पास विभिन्न श्रेणी की 23 तोपें भी थीं। इन सारी तैयारियों जायजा लेकर इस बार हमला अंग्रेजों ने सारे तरीको को अख्तियार करके किया । इस बार अंग्रेजों की कुटिल नीति और खुफिया तैयारियों के चलते बागियों की पराजय हुई। चांदा की लड़ाई में महान सपूत युवराज लाल प्रताप शहीद सिंह की शहीदत क्रान्तिकारियों की सबसे बड़ी क्षति थी। चांदा में उनकी शहादत की तिथि 19 फरवरी 1858 माना जाता है। यही नहीं चांदा की ऐतिहासिक लड़ाई में युवराज लाल प्रताप सिंह के चाचा राजा माधव सिंह भी लड़ते -लडते मातृभूमि पर शहीद हो गए।
चांदा की लड़ाई आज भी लोक गाथाओं और लोक गीतों में जीवित है। कालाकंकर के युवराज की वीरता का बयान आज भी स्थानीय लोक गीतों में होता और ग्रामीण उनको याद करते हैं। उनकी वीरता का बखान लोक गीतों में कुछ इस तरह है-
काले कांकर का बिसेनवा चांदे गाड़े बा निसनवां...
चांदा की विजय के बाद ही इलाहाबाद-लखनऊ के बीच का बंद संचार तंत्र अंग्रेजों की आवाजाही के लिए खुल सका । चांदा इलाके के निवासी, वरिष्ठ राजनेता और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष सुभाष चंद्र त्रिपाठी ने हाल में इस लेखक से बातचीत में कहा था िक चांदा के लोक जीवन में आज भी गांव-गांव में इस लड़ाई की याद होती है। उस जमाने में जनक्रांति का व्यापक असर सर्वत्र था और गांवो में अजीब सा ज्वार उठा था। इन किसानो के नाते ही आसपास की नदियों को पार करने में भी किसानो को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। बागी किसानो का नदी के घाटों पर पहरा था और इस नाते अंग्रेजों को एक -एक इंच जमीन पर आगे बढऩे में दिक्कतें आयी। उन दिनो नदियों पर पुल नहीं थे और खास तौर पर सेनाओं को नदी पार कराने के लिए नावों का पुल बनाना पड़ता था। पर बागियों के साथ मल्लाहों ने भी कंधे से कन्धा मिला लिया था। हिंदू- मुसलमान तो लड़ाई में एक ही सिक्के के दो पहलू थे।
लेकिन लाल प्रताप की शहादत के बाद भी उनके परिजनो और खास तौर पर उनके पुत्र राजा रामपाल सिंह ने आगे अंग्रेजों से जंग जारी रखी। राजा रामपाल सिंह (1848-1909) कांग्रेस के संस्थापको में प्रमुख थे और उन्होने जनजागरण के लिए हिंदी दैनिक हिंदोस्थान का प्रकाशन भी 1885 में कालाकांकर से शुरू किया था कालाकाकर राज की नींव युवराज लाल प्रताप के पिता राजा हनुमत सिंह (1808-1885) ने रखी थी। इस राज ने आजादी की लड़ाई में काफ़ी मदद की और बहुत से क्रन्तोकारिओं को यहां से साधन और शक्ति मिली। महात्मा गांधी तथा पंडित नेहरू भी यहां से काफी प्रभावित थे।
इस राजवंश का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है। गोरखपुर का मझौली गांव इस राजवंश का मूल स्थान रहा है। वहां से चलकर मिर्जापुर के कान्तित परगना से होते हुए इस वंश के राय होममल्ल ने मानिक पुर से उत्तर बडग़ौ नामक स्थान पर अपना महल बनवाया था। वहीं उनका 1193 में राज्याभिषेक हुआ। इसके काफी बाद में जब इस राजवंश के राजा हनुमत सिंह उत्तराधिकारी बने तो उन्होने कालाकाकर को अपनी राजधानी बनाने का फैसला किया । इसी परिवार से राजा अवधेश सिंह, राजा दिनेश सिंह जैसे नामी गिरामी व्यक्ति पैदा हुए। राजा दिनेश सिंह आजादी के बाद लंबे समय तक केंद्रीय मंत्री रहे ,जबकि उनकी पुत्री राजकुमारी रत्ना सिंह भी प्रतापगढ से संसद सदस्य रहीं।
लेकिन यह कचोटनेवाली बात है िक 1857 के महान शहीद की याद में चांदा में 150 सालों के बाद भी कोई स्मारक नहीं बना है और समय के साथ लोग इस महान योद्दा के योगदान और बलिदान को भूलते जा रहे हैं। युवराज लाल प्रताप सिंह की याद में कालाकांकर में जरूर कीर्ति स्तंभ के तौर पर प्रताप द्वार बना हुआ है। लेकिन इतिहास की किताबों में उनकी वीरता के बारे में जानकारी नहीं मिलती है। पर उस समय की सरकारी रिपोर्टो में उनका प्रताप जरूर नजर आता है।
युवराज लाल प्रताप सिंह की ही राह पर उनके वीर पुत्र राजा रामपाल सिंह चले। उन्होने राज और रियासत की परवाह किए बिना लोगों के बीच अलख जगाने की भावना से 1885 में हिंदी दैनिक हिंदोस्थान का प्रकाशन शुरू किया । उसी साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी। उपलब्ध साक्ष्यों के मुताबिक हिंदोस्थान समाचार पत्र सालाना 50,000 रु .घाटा दे रहा था पर राजा रामपाल सिंह ने इसकी परवाह नहीं की । प्रतापगढ़ के ही निवासी और राष्ट्रीय राजधानी के वरिष्ठ पत्रकार रमाकान्त पांडेय ने इस अखबार पर काफी अध्ययन किया है। उनका कहना है िक लगातार घाटे में राजा रामपाल सिंह ने इस दैनिक को 23 सालों तक प्रकाशित किया । उस दौरान के सारे अखबारों में हिंदोस्थान की ही सबसे लंबी आयु थी। हिंदोस्थान के ही जन्म के साल कानपूर से भारतोदय शुरू हुआ जो चंद महीनो में ही बंद भी हो गया और उसकी प्रति भी आज दर्शन को उपलब्ध नहीं है।
हिंदोस्थान का भारतीय पुनर्जागरण आंदोलन में काफी महत्वपूर्ण योगदान था। इस पत्र में राजा रामपाल सिंह खुद लिखते रहते थे। कालाकांकर से इलाहाबाद तक 40 मील की दूरी तक तार लाइन भी इस अखबार के लिए तब बिछाई गयी,जब वहां तारघर भी नही था। हिंदोस्थान के लिए रायटर समाचार एजेंसी की सेवा ली गयी। हिंदोस्थान रात में हैंड प्रेस से छपता था और नाव से गंगा पार भेजा जाता था। वहां से घोड़ा गाड़ी से सिराथू रेलवे स्टेशन पहुंचाया जाता जहां से इसे इलाहाबाद और कानपुर भेजा जाता था।
इस महान समाचार पत्र के पहले संपादक पंडित मदनमोहन मालवीय थे। इस पत्र से अलग होकर जब मालवीयजी इलाहाबाद वकालत करने लगे तो भी पत्र को उनका सहयोग मिलता रहा। मालवीयजी के बाद इसके संपादक मंडल में पंडित प्रताप नारायण मिश्र, अमृतलाल चक्रवर्ती , बालमुकुंद गुप्त, बाबू गोपाल सिंह गहमरी,शशि भूषण चटर्जी, लालबहादुर बीए, गुलाब चंद्र चौबे तथा पंडित शीलता प्रसाद जैसे उस जमाने के मूर्धन्य लोगों का नाम जुड़ा।
उस समय यह रियासत साधारण गांव में थी । ऐसे में वहां से अखबार निकालना कोई खेल नहीं था। पर उन्होने यहां से हिंदी पत्रकारिता के इतिहास को नयी दिशा दी। हिंदी का पहला सर्वांगीण दैनिक पत्र हिंदोस्थान ही माना जाता है। वैसे 1854 में कोलकाता से प्रकाशित दैनिक समाचार सुधावर्षण को हिन्दी का पहला दैनिक अखबार माना जाता है। पर यह बंगला और हिंदी दोनो में छपता था।

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